मंज़िल कोई भी देर तक प्यारी नहीं लगती I
मन को किसी भी शय से यारी नहीं लगती II १
कन्धे पर मेरे बोझ ज़िम्मेदारिओं का अब ,
ये जिंदगी हमें अब हमारी नहीं लगती II २
मेरा क़सूर था जो हम यूँ ज़ुदा हुए ,
इसमें कोई गलती अब तुम्हारी नहीं लगती II ३
मेरा मशीहा कोई फ़रिश्ते से नहीं कम ,
उसको किसी तंज की चिंगारी नहीं लगती II ४
इस बार पड़ा पाला जाबाज़ किसानों से ,
कैसे लड़ा जाये कुछ तैयारी नहीं लगती II ५
तुम शेर तो ये भी सवाशेर हैं जानी ,
झुक जायेंगे ऐसी तो लाचारी नहीं लगती II ६
निज़ाम -ए -ग़ुरूर ऐसा देखा ना कभी पहले ,
अब की जुबान इसकी सरकारी नहीं लगती II ७
रचना -जयप्रकाश ,जय
२५/१२/२०२०
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