नहीं काम आसान करता ये बंदा I
अन्धों की नगरी है चश्मे का धन्धा II
भले कुछ कहो काम सबसे है मुश्किल ,
यूँ ही नहीं लगता गले का ये फन्दा II
ये कैसी बग़ावत ये क्या दिल्लगी है ,
जिसने भी खेला हो है खेल गन्दा II
बनाते बनाते ये दुनिया बनाई ,
जिधर देखिये उधऱ गोरखधंधा II
ये मसला बिल्कुल समझ के है बाहर ,
धरम के नाम पर लाखों का चन्दा II
अपनी मुसीबत हम खुद हैं बनाते ,
समझ में जो आये तो जीवन सुगन्धा II
चेहरे पे रौनक उन्हीं के सदा है ,
दिल जिसका अक्सर रहता सुनन्दा II
रचना- जयप्रकाश विश्वकर्मा
२७जून 2020
सुगन्घा - सुगन्धित
सुनन्दा - अच्छा या सुन्दर स्वाभाव वाला
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