चराग हूं मक़सद हमारा साफ़ है I
हवा यूँ ही मेरे ख़िलाफ़ है II
पतंगें प्यार में हैं चरागों के ,
जलाना मगर कहॉं का इन्साफ़ है II
वो मंजिल पर पहुँचता ही कब है ,
जो ख़यालो में बस रस्तों का लेता नाप है II
जतन कुछ भी कर बचना नामुम्किन ,
सबको होना एक दिन सुपुर्द -ए - ख़ाक है II
वक्त आ गया सामने आईना बनकर ,
आज वो सच दिखाए तो नाइंसाफ है II
उसने क्या ख़ूब हवा का रुख़ मोड़ा है ,
ओ गलतियां करता रहता मगर माफ़ है II
इतनी महगाई की जैसे निचोड़ डाला
जिन्दा रहना लगता है एक सौगात है II
मिटाने की हर कोशिशें हुई नाक़ाम ,
जरूर अपनी इस मिट्टी में कुछ बात है II
रचना - जयप्रकाश विश्वकर्मा
२४जून 2020
सुपुर्द -ए - ख़ाक- मिट्टी में मिलना
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