जिंदगी है या कोई डरावना ख़्वाब है I
जिधर से भी जाऊँ रस्ता ख़राब है II
न हवाएँ चलती हैं न तेज बारिशों का क़हर ,
सुना है शहर में एक जानलेवा अज़ाब है II
पढ़ो कितनी भी इधर उधर की बातें ,
जिंदगी से बढ़कर नहीं कोई क़िताब है II
ओ करम अब उंगलिओं पे गिनते है ,
जुर्म का जिनके कुछ नहीं हिसाब हैII
लिए फिरते थे एक चेहरे पे कई चेहरे ,
हद तो अब एक और रुख़ पे नकाब है II
कभी ठहर खुद की तलाश तो कर ,
इसी वज़ूद में हीरा एक नायाब है II
रचना - जयप्रकश विश्वकर्मा
१० जून 2020
अज़ाब -पीड़ा
जिधर से भी जाऊँ रस्ता ख़राब है II
न हवाएँ चलती हैं न तेज बारिशों का क़हर ,
सुना है शहर में एक जानलेवा अज़ाब है II
पढ़ो कितनी भी इधर उधर की बातें ,
जिंदगी से बढ़कर नहीं कोई क़िताब है II
ओ करम अब उंगलिओं पे गिनते है ,
जुर्म का जिनके कुछ नहीं हिसाब हैII
लिए फिरते थे एक चेहरे पे कई चेहरे ,
हद तो अब एक और रुख़ पे नकाब है II
कभी ठहर खुद की तलाश तो कर ,
इसी वज़ूद में हीरा एक नायाब है II
रचना - जयप्रकश विश्वकर्मा
१० जून 2020
अज़ाब -पीड़ा
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