Friday, May 29, 2020

सादगी



सादगी  जिस   दिन  श्रृंगार  हो  गई ,
आईने  की  उसी  दिन हार हो  गई II 

बदले  यूँ  गिन गिन  के  ले  रही   है ,
जिंदगी ना   हुई  सरकार   हो   गई II 



जमीं   पर   शुन्य      बटे    सन्नाटा ,
तहरीर में  वादों की भरमार हो गई II 

जुर्म की   सज़ा   तो मिलनी   ही थी ,
दुनियाँ यूँ ही नहीं  गिरफ्तार हो गई II 

सच  जब   से   बंधक   बन    गया ,
झूठ   की   जैसे   भरमार   हो  गई II 

जमीं   क़ीमत    बड़ी   चुकाई    है ,
फजाँ यूँ   ही नहीं  गुलजार  हो गई II 

रचना -जय प्रकाश विश्वकर्मा 
27 मई 2020 

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