सादगी जिस दिन श्रृंगार हो गई ,
आईने की उसी दिन हार हो गई II
बदले यूँ गिन गिन के ले रही है ,
जिंदगी ना हुई सरकार हो गई II
जमीं पर शुन्य बटे सन्नाटा ,
तहरीर में वादों की भरमार हो गई II
जुर्म की सज़ा तो मिलनी ही थी ,
जुर्म की सज़ा तो मिलनी ही थी ,
दुनियाँ यूँ ही नहीं गिरफ्तार हो गई II
सच जब से बंधक बन गया ,
झूठ की जैसे भरमार हो गई II
जमीं क़ीमत बड़ी चुकाई है ,
फजाँ यूँ ही नहीं गुलजार हो गई II
रचना -जय प्रकाश विश्वकर्मा
27 मई 2020
No comments:
Post a Comment