यारों इस सियासत का इतना सा फसाना है I
आग भी लगानी है मातम भी मनाना है II
कभी झाक लिया करिये अपने भी गिरेबां में ,
इतना भी नहीं अच्छा यूँ शोर मचाना है II
लोगों की कमाई पर पलते हैं सिआसतदाँ ,
बारी जब अपनी हो ठेंगा ही दिखाना है II
हमने इस सियासत के कई रंग यहाँ देखे ,
ज़ख्म भी देना है और आँसू भी बहाना है II
जब इनकी ज़रूरत हो पैरोँ में गिर पड़ते ,
जब अपनी ज़रूरत हो फिर लाखों बहाना हैं II
जय गई न अकड़ अब भी राजा ही समझते हैं ,
अब भी सावन्ती युग लोकशाही बहाना है II
पहले सी नहीं मीडिया जो आवाज़ उठाएगी ,
इसका तो असली काम आवाज दबाना है II
रचना -जयप्रकाश विश्वकर्मा ,जय
१५/०७/2020
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