Friday, May 8, 2020

राहों में ही न मर जाएँ







आँखों   में शर्म    बाक़ी हो  तो    ज़रा     बतायें ,
 ये    बेबसी  अपनी    किसको    यहॉँ     सुनाएँ II 

लिए   जान   हथेली   पर निकालें तो है घऱों को,
डर   है    मगर    हमें     राहों  में ही न मर जाएँ II 

शहरोँ   ने    जब       हमें    इंकार  कर   दिया ,
ऐसे  में  हम   भला  क्यों   गावों   में   नहीं जायें II 

सीने में अगर दिल है तो अहसान इतना कर दें ,
मौका   है आज   भी  कुछ   कर   ज़रा दिखाएँ II 

क्यूंकि   किसी  की शान  मिट्टी में न मिल जाये ,
क्या   इसलिए   हम   घुट  घुट  के ही मर जाएँ II 

रचना -जयप्रकाश विश्वकर्मा ,जेपी 
08 मई 2020 


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