आँखों में शर्म बाक़ी हो तो ज़रा बतायें ,
ये बेबसी अपनी किसको यहॉँ सुनाएँ II
लिए जान हथेली पर निकालें तो है घऱों को,
डर है मगर हमें राहों में ही न मर जाएँ II
शहरोँ ने जब हमें इंकार कर दिया ,
ऐसे में हम भला क्यों गावों में नहीं जायें II
सीने में अगर दिल है तो अहसान इतना कर दें ,
मौका है आज भी कुछ कर ज़रा दिखाएँ II
क्यूंकि किसी की शान मिट्टी में न मिल जाये ,
क्या इसलिए हम घुट घुट के ही मर जाएँ II
रचना -जयप्रकाश विश्वकर्मा ,जेपी
08 मई 2020
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