मैंने बस इतना कहा आकाश में कुहरा घना है !
लोग कहते हैं किसी की व्यक्तिगत आलोचना है !
दिल दुखाने का किसी का मेरा इरादा नहीं,
फिर भी आहत हो गई कैसे किसी की भावना है!
आजकल का दौर यह मुश्किल भरा है दोस्तों,
छुई मुई हो गई है आदमी की चेतना है !
चित पावन हो नहीं सकता वो गंगा की तरह
गर जहन में पल रही आप के दुर्भावना है !
सच बिचारा मौन होकर सुन रहा है क्या करे,
हर तरफ़ जब झूठ का ही शोर और गर्जना है!
आधुनिक होने की अंधी दौड़ में पहुंचे कहाँ ,
धीरे धीरे आदमी की मर रही संवेदना है!
सोचता हूँ मैं कि इतना क्यूँ भला ख़ामोश वो,
इस धरा पर जिंदगी जिसकी अनोखी कल्पना है!
खेमो में दो बंट गया है यह ज़माना आजकल,
जिंदगी क्या मोड़ लेती आगे अब ये देखना है!
बात बस इतनी सी है, नासमझ दुनियां मग़र!
एक ही परमात्मा की मुख़्तलिफ़ आराधना है!
सच भले कितना ही दुर्बल 'जय' नज़र आता रहे!
सच के साथ साथ रहना ही सच्ची साधना है!
रचना -जयप्रकाश विश्वकर्मा ,मुंबई
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