रिश्तों के कहकशां का संसार बेचकर !
लो आ गये हम शहर घर बार बेचकर !!
कुछ लोग रातों रात ही अमीर हो गये,
कुछ नहीं बस अपना क़िरदार बेचकर !!
ऐ मौत साथ जाने में हर्ज़ अब नहीं ,
मैं सो रहा हूँ आज़ अंहकार बेचकर !!
हैं बेख़बर आज भी अपने ही शहर से ,
जो लोग जी रहें हैं अख़बार बेचकर !!
ख़बरें तो बीच बीच में मज़बूरी है उनकी
टीवी तो चल रहे हैं इश्तिहार बेचकर !!
पहले सभी को मुफ़्त पिलाई गई शराब,
फिर वोट देकर आ गये अधिकार बेचकर !!
रचना -जय प्रकाश ,जय ०८ सितम्बर २०२१ ( V-1,1)
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